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Baansgaon Ki Munmun (बांसगांव की मुनमुन)
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Barnes and Noble
Baansgaon Ki Munmun (बांसगांव की मुनमुन)
Current price: $12.99
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'पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं।' बांसगांव की मुनमुन का यह स्वर गांव और क़स्बों में ही नहीं बल्कि समूचे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में बदलती औरत का एक नया सच है। पति परमेश्वर की छवि अब खंडित है। ऐसी बदकती, खदबदाती और बदलती औरत को क़स्बे या गांव का पुरुष अभी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उसके सगे भाई भी नहीं। पैसा और सफलता अब परिवार में भी राक्षस बन गए हैं। सर्प बन चुकी सफलता अब कैसे एक परिवार को डंसती जाती है, बांसगांव की मुनमुन का एक ताप यह भी है कि लोग अकेले होते जा रहे हैं। अपने-अपने चक्रव्यूह में हर कोई अभिमन्यु है। लालच कैसे भाई की लाश को भी आरी से काट कर बांटने के लिए लोगों को निर्लज्जता की हद तक ले जा चुकी है, बांसगांव की मुनमुन में यह दंश भी खदबदाता मिलता है। जज, अफसर, बैंक मैनेजर और एन.आर.आई. जैसे चार बेटों के माता-पिता एक तहसीलनुमा क़स्बे में कैसे उपेक्षित, अभावग्रस्त और तनावभरा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, इस लाचारगी की इबारतें पूरे उपन्यास में यों ही नहीं उपस्थित हैं। बांसगांव की मुनमुन के बहाने भारतीय क़स्बों में कुलबुलाती, खदबदाती एक नई ही ज़िंदगी, एक नया ही समाज हमारे सामने उपस्थित होता है। बहुत तफ़सील में न जा कर अंजुम रहबर के एक शेर में जो कहें कि 'आइने पे इल्ज़ाम लगाना फिजूल है, सच मान लीजिए चेहरे पे धूल है।' बांसगांव की मुनमुन यही बता रही है।